नीतिगत क्रियान्वयन से भारत में सहकारिता आंदोलन को दिया जा रहा बढ़ावा
(शाजी के.वी, अध्यक्ष, नाबार्ड)
साझा आर्थिक समृद्धि को बढ़ावा देने के लिए समावेशी विकास रणनीति “सहकार से समृद्धि” के देश में अब तक काफी कारगर नतीजे सामने आए हैं। स्वतंत्रता से पहले के दौर में अगर हम भारत में सहकारिता आंदोलन की उत्पत्ति को देखें तो पाएंगे कि इसकी शुरुआत किसानों की गरीबी कम करने की चुनौती से हुई थी, जिसका मुख्य कारण बार-बार पड़ने वाला सूखा और साहूकारों की सूदखोरी प्रवृत्ति था। एनएएफआईएस, 2021-22 के अनुसार यह काफी प्रसन्नता का विषय है कि ग्रामीण सहकारी ऋण संस्थानों के माध्यम से केंद्र सरकार की निरंतर और लक्षित वित्तीय समावेशी पहलों के कारण, ग्रामीण परिवारों की साहूकारों और जमींदारों पर निर्भरता अब घटकर मात्र 4.2 प्रतिशत रह गई है।
भारत में सहकारी आंदोलन को आगे बढ़ाने वाली प्रारंभिक शक्तियां भले ही अब कमज़ोर पड़ रही हों, लेकिन ग्रामीण अर्थव्यवस्था के लिए इस समय कई नई और जटिल उभरती चुनौतियां हैं, जिनके लिए सहकारी आंदोलन को नई दिशा और उस पर ध्यान देने की आवश्यकता होगी, ताकि ग्रामीण अर्थव्यवस्था में सभी के लिए बेहतर भविष्य सुनिश्चित हो सके। यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने जो सपना देखा है, उसी के अनुरूप देश 2047 तक विकसित भारत के अपने लक्ष्य की ओर बढ़ रहा है।
इन नई चुनौतियों में किसानों की आय बढ़ाने से लेकर एक कुशल ग्रामीण आपूर्ति श्रृंखला हासिल करना, स्थायी आधार पर खाद्य मुद्रास्फीति को कम करना, कृषि के अलावा अन्य क्षेत्रों में रोजगार के अवसर पैदा करना, कृषि उत्पादकता तथा जलवायु परिवर्तन से निपटने वाले प्रयासों को बढ़ाना और डिजिटल क्षेत्र में अवसरों का लाभ उठाना शामिल है। सहकारी संस्थाएं अपने मजबूत स्थानीय ज्ञान, पूर्व की घटनाओं से अनुभव हासिल कर भविष्य की नई योजनाएं, संपर्क कार्यक्रम बनाने तथा इन्हें मजबूत करने की क्षमता और नए कारोबारी माहौल के अनुरूप ढलने के कारण इन चुनौतियों से निपटने के लिए विशेष रूप से उपयुक्त हो सकती हैं। सहकारी संस्थाओं के लिए मददगार नीतियां बनाने की दिशा में संयुक्त राष्ट्र महासभा की ‘सामाजिक विकास में सहकारी समितियों पर रिपोर्ट’ (जुलाई 2023) से जानकारी प्राप्त करना उपयोगी हो सकता है, जो इस बात पर ज़ोर देती है कि “सहकारी समितियां बाज़ार संबंधी विफलताओं से निपटने, हाशिए पर पड़े लोगों को सशक्त बनाने, रोज़गार के अवसर बढ़ाकर सतत विकास को सहारा देकर राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान देती हैं”। यह रिपोर्ट सहकारी समितियों के लिए एक उद्यमी प्रक्रियागत दृष्टिकोण की सिफारिश करती है, जो एक स्थानीय माहौल में आपस में जुड़े हुए नेटवर्क के माध्यम से सभी हिस्सेदारों को जोड़ती है।
भारत के सहकारी क्षेत्र में दूध और चीनी के क्षेत्रों में मिली अपार सफलता केवल एकीकृत दृष्टिकोण के महत्व को ही प्रमाणित करती है। इसका एक और अन्य सफल उदाहरण भारत की सबसे पुरानी श्रमिक सहकारी संस्था – उरालुंगल लेबर कॉन्ट्रैक्ट को-ऑपरेटिव सोसाइटी का है, जो बुनियादी ढाँचे से जुड़ी है और इस वर्ष अपनी स्थापना के 100 साल पूरे कर रही है। यह वैकल्पिक उद्यमशीलता मॉडल का एक अनूठा उदाहरण है। यहां सहकारिता के दो विशिष्ट पहलुओं का उल्लेख करना आवश्यक हैः पहला, “सहकारी समितियों के बीच सहयोग” का महत्व – जब उरालुंगल को एक सड़क परियोजना हेतु लिए गए भारी कर्ज की किश्तें चुकानी थीं, तो उसने 38 प्राथमिक सहकारी समितियों का एक संघ बनाया और उनकी मदद से यह भारी राशि जुटा सकी, जिससे उसकी साख भी बनी रही और साथ ही उसका विस्तार भी हुआ; दूसरा, निजी फर्मों के विपरीत, संकट की स्थिति में एक श्रमिक सहकारी समिति द्वारा रोजगार सुरक्षा सुनिश्चित की जा सकती है।
श्री अमित शाह के शानदार नेतृत्व में भारत सरकार में एक नए सहकारिता मंत्रालय के गठन के परिणामस्वरूप सहकारी समितियों के लिए भारत में हाल की नीतियों, ग्रामीण अर्थव्यवस्था में उभरती चुनौतियों की व्यापक और जटिल प्रकृति को ध्यान में रखते हुए तैयार की गई हैं। इस तरह के कुछ बड़े प्रयासों में कॉमन सर्विस सेंटर के रूप में प्राथमिक कृषि ऋण समितियों (पैक्स) का गठन, इसे कंप्यूटरीकृत करना, किसान उत्पादक संगठनों (एफपीओ) का गठन और पैक्स के लिए खुदरा पेट्रोल/डीजल आउटलेट/एलपीजी वितरण अधिकार; सहकारी क्षेत्र में गोदामों का व्यापक नेटवर्क; मत्स्य किसान उत्पादक संगठनों (एफएफपीओ) का गठन; शामिल नहीं की गई पंचायतों में नए बहुउद्देशीय पैक्स/डेयरी/मत्स्य सहकारी समितियां और पैक्स के लिए मॉडल उप-नियम शामिल हैं।
राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड), सहकारी समितियों के लिए अपने बहुस्तरीय और गतिशील रूप से उत्तरदायी सहयोगात्मक ढांचे के साथ, मंत्रालय के मार्गदर्शन में, सतत प्रक्रिया के रूप में नीति क्रियान्वयन से जुड़े लोगों को सक्षम बनाता है जिसमें (अ) ग्रामीण सहकारी बैंकों को पुनर्वित्तपोषण का प्रावधान, कृषि, संबद्ध क्षेत्रों और ग्रामीण गैर-कृषि गतिविधियों के लिए अल्पकालिक और दीर्घकालिक ऋण देने के लिए उनके संसाधनों में पूर्ति करना; (ब) सहकारी विकास निधि के माध्यम से विकासात्मक समर्थन और वित्तीय समावेशन निधि के माध्यम से ग्रामीण क्षेत्रों में वित्तीय समावेशन को बढ़ावा देना; (स) नीति और कार्यान्वयन समर्थन, जैसे पैक्स का कम्प्यूटरीकरण और 300 से अधिक ई-सेवाएं प्रदान करने वाले सामान्य सेवा केंद्रों के रूप में पैक्स का कार्यान्वयन, और (द) वित्तीय स्थिरता को बनाए रखने के लिए पर्यवेक्षण जैसे प्रयास शामिल हैं।
नाबार्ड सहकारी समितियों को एक-दूसरे के तुलनात्मक लाभों से लाभान्वित करने की सुविधा प्रदान कर इस आंदोलन को मजबूत करने के लिए “सहकारी समितियों के बीच सहयोग” को बढ़ावा दे रहा है। इस पहल में वित्तीय पक्ष से जुड़ा एक महत्वपूर्ण बिंदु- सहकारी समितियों और उनके सदस्यों के मौजूदा बैंक खातों को विभिन्न वाणिज्यिक बैंकों में समेकित करना और उन्हें एक केंद्रीकृत जिला/राज्य सहकारी के तहत रखना होगा, जिससे सहकारी प्रणाली के संसाधन प्रणाली के भीतर ही बने रहेंगे।
भविष्य में कुछ विशिष्ट क्षेत्रों में नीतिगत तौर पर ध्यान देने की आवश्यकता हो सकती है। हाल के वर्षों में टमाटर, आलू और प्याज की कीमतों में बढ़ोतरी के कारण दुग्ध क्षेत्र की तर्ज पर इन तीनों वस्तुओं के लिए अधिक से अधिक किसान उत्पादक संगठनों का गठन और एक एकीकृत आपूर्ति श्रृंखला मदद कर सकती है। आंतरिक तौर पर पूंजी निर्माण या सहकारी समितियों की आय को उनके भीतर ही बनाए रखना इन समितियों के विस्तार और आधुनिकीकरण की योजना बनाने में मददगार साबित हो सकता है। यह उत्पादकता और जलवायु परिवर्तन से निपटने के प्रयासों के बढ़ते महत्व को देखते हुए उपयोगी होगा। उपलब्ध कृषि योग्य भूमि के पीढ़ी दर पीढी बंटवारे को देखते हुए बागवानी फसलों की बिक्री से होने वाले लाभों के मद्देनजर विशेष रूप से बहु-राज्य सहकारी समितियों को उत्पादकों का एक व्यापक नेटवर्क बनाने की आवश्यकता हो सकती है। यह लागत को कम करने और उनकी मोलभाव करने की क्षमता में सुधार करने में मदद कर सकता है। भूमि स्वामित्व पर किसी भी जोखिम के बिना सहकारी समितियों द्वारा बड़े पैमाने पर भूमि पूलिंग जैसे क्षेत्रों पर ध्यान दे सकती है।
WTO के अनुरूप प्रसंस्कृत उत्पाद एक मजबूत कृषि-निर्यात उत्पाद क्षेत्र बनाने में मदद करने, तकनीक अपनाने, अधिक पारदर्शिता के साथ व्यापार करने में आसानी; प्रशिक्षण के माध्यम से क्षमता निर्माण और उद्यमी कारोबारी तंत्र के विभिन्न हिस्सों के रूप में कृषि स्टार्ट-अप के साथ अंतर्संबंधों को भी बढ़ावा देने की आवश्यकता होगी। वित्तीय संसाधनों तक पहुंच को उत्कृष्टता संबंधी प्रदर्शन से जोड़ा जाना चाहिए, जिसके लिए संसाधनों और उत्कृष्टता परिणामों के अंतिम उपयोग की जानकारी के साथ एक मजबूत डेटा बेस विकसित करने की आवश्यकता होगी। ऋण क्षमता के आकलन के आधार पर कृषि ऋण के लिए वर्तमान आपूर्ति-आधारित दृष्टिकोण को धीरे-धीरे अंतिम उपयोग और परिणामों से संबंद्ध प्रतिबद्धताओं के आधार पर ऋण की प्रभावी मांग द्वारा प्रतिस्थापित किया जाना चाहिए।
सहकारी समितियों को नए उभरते नवप्रवर्तकों या नए कारोबारी विचारों की पहचान करने और उन्हें आगे बढ़ाने, वित्तीय और अतिरिक्त सहायताएं देने के लिए एक प्रणाली स्थापित करने की आवश्यकता भी हो सकती है। नीतिगत पोषण से प्रेरित एक पुनर्जीवित सहकारी आंदोलन देश में अधिक समावेशी ग्रामीण आर्थिक समृद्धि का अग्रदूत हो सकता है।