विवेकानन्द के सपनों का भारत

डॉ0 सीमा रानी,
प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्षा,
डी.ए.के. कालेज, मुरादाबाद, उ0प्र0।

अद्भुत प्रतिभा के धनी, ज्ञान का कोष, विनयशील व्यक्तित्व के धनी विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी सन् 1863 को कलकत्ता के सुसंस्कृत परिवार में हुआ। इनका वास्तविक नाम नरेन्द्रनाथ दत्त था। धनाढ्य परिवार में जन्म लेकर भी इन्हें सांसारिक वस्तुओं से मोह नहीं था। ये संन्यासी प्रवृत्ति के थे। कला प्रेमी, कुश्ती, घुड़सवारी, नृत्य, संगीत व नाव खेने में कुशल थे। इसे साथ-साथ उनका विज्ञान, ज्योतिष, गणित, दर्शन व यूरोपीय भाषाओं पर समान अधिकार था। चिंतन, आलोचना और विवेचन की प्रवृत्ति के कारण वे नरेन्द्र से विवेकानंद बने।
उनके आकर्षक एवं अद्भुत व्यक्तित्व व उनकी वाकपटुता ने भारत की सभ्यता को एक नया आलोक दिया। उनका दीप्तिमान तेजस्वी मुख, उनकी गंभीर सुललित वाणी सबको आकर्षित कर देती थी। उन्होंने गिरजे और क्लबों में अनेक बार उपदेश दिये। अपने तथ्यों को वे अपूर्व तरीके से सबके सम्मुख रखते थे। स्वामी विवेकानन्द न केवल एक महान संन्यासी थे वरन् एक निष्ठावान देशभक्त भी थे। उन्होंने भारत को उसकी प्राचीन महिमा की उच्च वेदी पर प्रतिष्ठित किया। उन्होंने भारत की राष्ट्रीय चेतना को जगाने में अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया। एक तपस्वी होने के बावजूद विवेकानन्द देशभक्तों के शिरोमणि थे। उनके मन में सदा यही विचार घूमता रहता था कि भारतवासियों की सोई हुई आध्यात्मिक ऊर्जा को कैसे जगाया जाए, जिससे भारत अपनी प्राचीन महिमा को पुनः प्राप्त कर सके।
‘विवेकानन्द की जीवनी’ के लेखक रोम्याँरोलाँ ने आत्म-विस्मृत भारत के स्वाभिमान को जगाने के लिए स्वामीजी ने किस प्रकार भारतवासियों को झकझोरा था, उसका वर्णन किया-
“मेरे भारत, जागो! कहाँ है तुम्हारी प्राणशक्ति? तुम्हारी अमर आत्मा में है वह… प्रत्येक राष्ट्र का, प्रत्येक व्यक्ति की भाँति जीवन का एक मूल लक्ष्य होता है, एक केन्द्र बनता है, वादी स्वर होता है, जिसका अवलंबन कर अन्य स्वर संगीन में स्वर-संगति पैदा करते हैं। जो राष्ट्र अपनी राष्ट्रीय प्राणशक्ति को छोड़ना चाहता है, सदियों से प्रवाहित अपनी धारा की दिशा को बदलना चाहता है, वह राष्ट्र नष्ट हो जाता है। किसी राष्ट्र की प्राणशक्ति राजनीतिक सत्ता है, जैसे इंग्लैण्ड की, तो किसी की कलात्मक जीवन और किसी की कुछ और। भारत का केन्द्र है-धार्मिक जीवन, राष्ट्रीय संगीत का वही आदिस्वर है। इसलिए यदि तुम अपने धर्म को त्यागकर राजनीति और समाज को पकड़ोगे, तब तुम लुप्त हो जाओगे। समाज-सुधार एवं राजनीति की शिक्षा तुम्हें अपने धर्म के जीवंत माध्यम से देनी होगी। प्रत्येक व्यक्ति की भाँति प्रत्येक राष्ट्र को अपना मार्ग चुनना है। हम युगों पूर्व अपना मार्ग चुन चुके हैं और वह है अनित्य आत्मा से आत्मा का मार्ग। कोई कैसे इसे त्याग सकता है? तुम कैसे अपने स्वभाव को बदल सकते हो? भारत अपने मार्ग से भटक न जाए, दिग्भ्रमित न हो जाए, यही स्वामीजी की प्रमुख चिंता थी।
स्वामीजी कहते थे “हमारा प्राचीनतम राष्ट्र है। हजारों वर्ष की आयु है। हम कोई कट्टरवादी नहीं है। भारतीय राष्ट्र कभी नष्ट नहीं हो सकता। यह अमर है और तब तक टिका रहेगा जब तक कि इसका धर्मभाव अक्षुण्ण बना रहेगा, जब तक इस देश के लोग अपना धर्म नहीं त्याग देते, चाहे वे भिखारी रहें या निर्धन, चाहे दरिद्रता से पीड़ित हों अथवा मैले और घिनौने हों, परंतु वे अपने ईश्वर का परित्याग कभी न करें, कभी न भूलें कि वे ऋषि-संतान हैं।”
अंग्रेजों ने भारत को गड़रियों, मदारियों तथा पिछड़े लोगों का देश कहकर विश्व दरबार में अवहेलना की और हमें उपेक्षित समझा, परंतु भारत की ग्लानि, भारत की उदासी, भारत की आत्म-विस्मृति एवं भारत की हताशा को दूर करना उस समय उन्हें बड़ा कठिन जान पड़ता था। स्वामीजी ने आत्म-विश्वास जगाकर भारत को इन सब दोषों से मुक्त करने की कार्ययोजना बनाई व अंग्रेजों को उनका नजरिया बदलने को मजबूर कर दिया।
वे राष्ट्र का निर्माण धार्मिक पुनर्जागरण के माध्यम से करना चाहते थे। हमारा धर्म अन्य सभी धर्मों को स्वीकार करता है। स्वामीजी वेदांत के प्रवर्तक थे। उनका कहना था “हमें बुद्ध के प्रेम एवं व्यावहारिकता की तथा वेदांत के तत्वज्ञान की जरूरत है।” धर्म, संस्कृति, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र सबको लेकर हमें वेदान्त की नींव को दृढ़ करना चाहिए। उनका मानना था यदि हम अपनी ऐतिहासिक विरासत की नींव पर राष्ट्र की रचना न करें तो भारत भारत नहीं रह जाएगा।
पं. दीनदयाल उपाध्याय के चिंतन में स्वामीजी के जिन दो सूत्रों की समानता परिलक्षित होती है, वे हैं, “धर्म को ठेस पहुँचाए बिना समाज की उन्नति की जानी चाहिए।” और दूसरी बात स्वामी विवेकानन्द ने कही थी, “इंग्लैण्ड प्रत्येक चीज को पाउंड, शिलिंग, पेंस में बताता है तो भारत प्रत्येक बात को धर्म की भाषा में बोलता है।” इन दो सूत्रों के कारण वे भारतीय राजनीति को एक निश्चित दिशा देने में सफल हुए और इसी का प्रयास करते हुए उन्होंने अपना जीवन खपा दिया।
अमेरिका, यूरोप के ऐश्वर्य-संपन्न देशों में वर्षों तक रहने के बाद भी भारत के प्रति उनका प्रेम व अनुराग कम नहीं हुआ। इस संबंध में उनका यह वक्तव्य उनकी गरिमा को ही बढ़ाता है। वे स्वयं कहते हैं- “भारत के प्रति उनके इस प्रेम के कारण ही मूर्छित, भ्रमित एवं अकर्मण्य भारत को जाग्रत, लक्ष्यगामी एवं उद्यमी भारत बनाने की उनकी मनोकामना प्रबल से प्रबलतर होती रही।

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